शनिवार, 17 सितंबर 2011

सेक्स का असली मजा 40 के बाद
लंदन, मंगलवार, 31 मई 2011( 12:58 IST )
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इस बात पर कई बार विशेषज्ञों में बहस हुई है कि आखिर महिलाओं को उम्र के कौन से पड़ाव पर सेक्स का भरपूर आनंद आता है। इसी मुद्दे पर हाल ही में लंदनClick here to see more news from this city में एक शोध पूरा हुआ, जिसके नतीजे में कहा गया कि युवावस्था के बजाय चालीस वर्ष की उम्र के बाद महिलाएं सेक्स का भरपूर आनंद लेती हैं या इसे यूं कह लीजिए कि किसी किशोरी की अपेक्षा 40 से 50 साल की उम्र की महिला को सेक्स करने में ज्यादा आनंद मिलता है

अध्ययन में कहा गया है कि 40 से 50 साल की उम्र में महिलाएं सेक्स के 'चरम आनंद' की अनुभूति कर पाती हैं, जो मनोवैज्ञानिक कारणों से युवावस्था में प्राप्त नहीं हो पाता। इस शोध में बताया गया कि 40 के बाद महिलाएं स्वास्थ्य की दृष्टि से अपनी आदर्श स्थिति में होती हैं और इस दौरान वे सेक्स का मनचाहे अंदाज में मजा लेती हैं। इसके अलावा इस उम्र में महिलाओं की सेक्स के प्रति रूचि बढ़ जाती है और वे युवावस्था की अपेक्षा इस उम्र में ज्यादा सेक्स करती हैं। इस दौरान वे शर्माती नहीं और अपने पार्टनर के साथ सेक्स में नए आसनों का प्रयोग करती हैं।

शोध में प्रस्तुत आंकड़ों में बताया गया कि 18 से 30 वर्ष की उम्र की 54 प्रतिशत महिलाएं अपनी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण सेक्स के चरम आनंद तक नहीं पहुंच पातीं, जबकि 31 से 45 वर्ष की महिलाओं में यह समस्या केवल 43 प्रतिशत महिलाओं में पाई गई। 31 से 45 वर्ष की लगलभग 87 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि वे उम्र के इस पड़ाव पर सेक्स का सबसे ज्यादा मजा ले रही हैं। जबकि 18 से 30 साल की उमर की 85 प्रतिशत महिलाएं ये दावा कर पाईं कि वे सेक्स के चरम बिंदु तक पहुंच रही हैं।

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने यह शोध अगल अलग उम्र की 600 महिलाओं पर किया और सेक्स के बारे में उनके पूर्व और वर्तमान अनुभवों को अपने शोध का आधार बनाया। (एजेंसियां)

गुरुवार, 31 मार्च 2011

याद आओगे जमाने को मिसालों के लिए....


लगभग ढाई साल पहले सितम्बर २००८ में इलाहबाद के चिकित्सा जगत में एक ऐसे सितारे का उदय हुआ जो अपने कार्यों और सेवा भावना से इलाहाबाद ही नहीं बल्कि आस-पास के भी जिलों में इस तरह से छ गया जैसे आसमान में तारों के बीच चंद्रमा. दिनोदिन बढती उसकी ख्याति से शहर के तमाम बड़े और नामी गिरामी चिकित्सक ईर्ष्या करने लगे. उन्हें अपना लूटखसोट का धंधा बंद होता नज़र आने लगा. डॉ अमित शुक्ल नामक इस युवा चिकित्सक का बस यही सपना था कि कोई गरीब या बेसहारा इलाज के अभाव में न मरने पाए। जहाँ भी पता चलता कि कोई व्यक्ति गरीबी के कारण या फिर इलाज के अभाव में तड़प रहा है, वह मदद के लिए पहुँच जाता। वह चाहे इलाहाबाद शहर हो या गाँव या फिर आस-पास का जिला . मगर ३० मार्च २०११ की रात एक ऐसी खबर मिली कि सहसा कानों पर यकीन करना मुश्किल हो गया। विश्वास ही नहीं हुआ कि गरीबों के रहनुमा के रूप में चर्चित चौंतीस वर्षीय डा. अमित शुक्ला अब हमारे बीच नहीं रहे। मैं ही नहीं जिसने भी यह दर्दनाक खबर सुनी वही अवाक रह गया। सभी के मुख से बस यही निकला, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे इंसान और होनहार चिकित्सक को भगवान हमसे नहीं छीन सकते। मगर सत्य तो सत्य ही होता है। एक न एक दिन उसे स्वीकारना ही होता है। ...और इसके साथ ही बस लोग संस्मरण सुनाने लगे। जाहिर है वह जितने अच्छे न्यूरोलाजिस्ट थे उससे भी ज्यादा अच्छे इंसान और समाज सेवी। जो भी एक बार उनसे मिला उनका मुरीद हो गया। किसी की मदद करने में उनको वही सुख मिलता था जो किसी धनलोलुप चिकित्सक को मरीजों की भीड़ या फिर किसान को लहलहाती खेती देखकर मिला करती थी। चिकित्सा क्षेत्र में भी उन्होंने पाने की लालसा कभी नहीं की। ‘जो मिले उसे बांटते रहो, मदद करते रहो’ यह उनका आदर्श वाक्य था।उनका अक्सर यही सवाल होता कि लोग सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात या पैसा नहीं खाते फिर भी पैसे केलिए ही परेशान रहते हैं। खाने केलिए तो सिर्फ दाल, चावल, रोटी और सब्जी ही चाहिए। उनकी खूबियों की इतनी कहानियां हैं कि शायद ही उनका कभी अंत हो। जब भी कभी अच्छे इंसान, योग्य और संवेदनशील चिकित्सक, समाजसेवी की चर्चा होगी तो डा. अमित शुक्ला का नाम सबसे पहले आएगा। उनके लिए बस यही कहा जा सकता है कि, याद आओगे तुम जमाने को मिसालों के लिए। इलाहाबाद में अपने ढाई साल के कार्यकाल में उन्होंने इतने लोगों को अपना बना लिया था कि सभी के कायल हो गए थे। इस काम अवधि में ही उन्होंने सैकड़ो गरीब बच्चों को गोद ले रखा था. उनके असामयिक निधन से वे सभी बच्चे अनाथ हो गए. सच , अब भला कौन उन्हें दवाएं, खिलौने और भोजन पहुंचाएगा. मैं तो बस यही कह सकता हूं-‘इन्सान के रूप में बनकर आ गया था फ़रिश्ता ओ, उसकी खूबियों की चर्चा तो गैर की महफिल में है’।


सोमवार, 28 मार्च 2011

भुलाए नहीं भूलती बचपन की वह होली

बात उन दिनों की है जब मैं प्राइमरी में पढ़ता था। तीन-चार दशक पहले गांवों में होली का बड़ा महत्व होता था। फागुन आते ही रात में चौपालों में होली गीत शुरू हो जाते थे। साले और बहनोई अगर आ जाते तो रंग से सराबोर होकर ही वापस जाने पाते थे। उनसे होली खेलने पूरा गांव (जिनका रिश्ता बनता था) जुट जाता था। मतलब माहौल ही देखकर बाहरी व्यक्ति जान सकता था कि फागुन उफान पर है। बड़े बुजुर्ग जहां फाग गाकर मस्ती लेते थे वहीं बच्चे पिचकारियां थाम लेते थे। भाभियों की शामत आ जाती थी। दिन भर में उन्हें कई-कई बार भीगना पड़ता था। रंग तो खैर होली के ही दिन पड़ता था लेकिन पानी की बौछार कई बार मिल जाती थी। सो मेरी भी रिश्ते की एक भाभी पहली बार आई थीं। फागुन का महीना उस पर नई नवेली। सो पहली बार भाभी से रंग खेलने के सपने देखने लगा। इसी बीच पता चलाकि पहली बार ससुराल आने के कारण होली से पहले वह मायके वापस चली जाएंगी। यह सुनते ही उत्साह ठंडा होने लगा। मगर अचानक खयाल आया कि होली से पहले ही क्यों न उन्हें रंग दूं। बस यह सोचते ही मन मयूर खुशी से नाच उठा। अब मैं स्कूल जाने से पहले और आने के बाद भाभी पर रंग डालने की जुगत तलाशने लगा। मगर हर जुगत फेल हो जाती। कभी वह रसोई में होतीं तो कभी गांव की लड़कियाें से घिरी होने के कारण निराश होना पड़ता। कभी तो वह देखते ही कमरे में भागकर दरवाजा बंद कर लेतीं। लुकाछिपी का यह खेल लगभग एक सप्ताह से चल रहा था। एक दिन शाम को मैं स्कूल से आया। बस्ता (बैग) घर में रखा और प्लास्टिक वाली छोटी पिचकारी में रंग भरा और छिपाकर उनके घर में दाखिल हो गया। मौका भी मिल गया। उनके पतिदेव को छोड़ बाकी परिवार के सदस्य घर के बाहर बैठे थे। उनके पतिदेव से मैंने कहा, भइया अगर आज आप मदद करें तो भाभी से होली खेल लूं। उन्होंने कहा, ठीक है। यह कहकर वह कमरे में अपनी पत्नी के पास गए और फिर बाहर की ओर चल पड़े। मगर जाते समय उन्होंने घर का प्रवेश द्वार बाहर से बंद कर लिया। उनकी इस साजिश से मैं अवाक रह गया। फिर वही हुआ जिसका डर था। मेरी सारी बहादुरी काफूर हो चुकी थी। भागने का कोई मौका था नहीं। जो भाभी मुझको देखकर रोज कमरे में घुस जाती थीं वह आज खुद हमलावर थीं। बताने की जरूरत नहीं कि उम्र में काफी बड़ी होने के कारण उन्होंने मेरी जो दुर्दशा की कि मैं रंग डालना भूल सिर्फ उनसे बचने की आरजू ही करता रहा। मगर उन्होंने कहा, सप्ताह भर सो तुम परेशान हो। आज सातों दिन की कसर पूरी कर दूंगी। किया भी उन्होंने वही। कोई अंग नहीं बचा था जहां उन्होंने रंग, कीचड़ और कालिख न पोता हो। काफी मिन्नत केबाद उन्होंने मुझे छोड़ा, और मुस्कराते हुए बोलीं, अब अगले साल फिर आना। अपने शरीर की दुर्दशा देख मुझे भाई साहब पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बाहर निकलकर मैंने उनसे कहाभी, आपने साजिश की। पत्नी का साथ दिया, भाई का नहीं। मेरे शरीर की हालत देख वह भी मुस्कराने लगे और बोले, तुम्हीं ने तो कहा था कि मैं बाहर चला जाऊं।
सचमुच वह होली मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। भाभीजी भी फागुन में जब मिलती हैं तो मुस्कराते हुए कहती हैं, देवर अबकी होली नहीं खेलोगे क्या। मेरा जवाब होता है नहीं भाभी, पहली होली ही नहीं भूल पा रहा हूं। अब क्या खेलूंगा।
-कृष्णानन्द त्रिपाठी

रविवार, 13 मार्च 2011

निःस्वार्थ प्रेम के प्रतीक जूली और मटुकनाथ

yah post sabhar li gayi hai-

मटुक जूली का फेविकोल





सहारा चैनल इंदौर, के श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी ने अपने फेसबुक के वॉल पर लिखा है-



मटुकनाथ और जूली का फेविकोल !

सब के जोड़ उखड़ गये,

इन दोनों के बचे हैं,

रहस्य क्या है ?

लिज हर्ले का अरुण नायर से

करिश्मा कपूर का संजय कपूर से

रणबीर कपूर का दीपिका पादुकोण से

प्रियंका चोपड़ा का हरमन बावेजा से

सोनाक्षी सिन्हा का आदित्य श्रॉफ से

सलमान का संगीता बिजलानी, ऐश्वर्या राय,

कैटरीना, सोमी अली, जरीन आदि से

सुष्मिता सेन का विक्रम भट्ट, संजय नारंग,

सबीर भाटिया, रणदीप हुड्डा, मानव मेनन,

बंटी सचदेव, वसीम अख्तर वगैरह से

अक्षय कुमार का रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी इत्यादि से

प्रीति जिंटा का नेस वाडिया से

कंगणा राणावत का अध्ययन सुमन से

सबके जोड़ खुल गये

. पर वाह क्या जोड़ है, मटुकनाथ और जूली का !!



प्रकाशजी फेसबुक पर हमारे मित्र हैं। लेकिन इसके पहले मार्च, 2007 में इंदौर-यात्रा के क्रम में ही हमारी मित्रता हो चुकी थी। उनके इस वक्तव्य पर फेसबुक में अनेक टिप्पणियाँ आयीं। सबने अपने-अपने मनोविकार प्रकट किये, विचार कहीं से नहीं आया। मैं सोचने लगा आखिर इसका रहस्य क्या है ? मटुक-जूली के प्रेम के टिकाऊपन का कारण ढूँढ़ने की कोशिश लोगों ने क्यों नहीं की ? अनुमान क्यों नहीं भिड़ाया ? क्या उनलोगों में विचार करने की क्षमता नहीं है ? उल्टा सीधा अनुमान भी नहीं लगा सके ! क्यों हमदोनों का नाम आते ही वे अपनी-अपनी मनोग्रंथियों में सिकुड़ गये ? यह बात तो सच है कि स्कूल-कॉलेजों में मौलिक ढंग से विचार करना नहीं सिखाया जाता। इसलिए वे विचार अगर नहीं कर पाये तो कोई आश्चर्य नहीं। विचार न सही, अगर वे प्रेम कर रहे होते तो दूसरों के प्रेम को समझने की क्षमता उनमें अपने आप आ गयी होती। बेचारे प्रेम करें भी तो कैसे, क्योंकि मुट्ठी भर प्रबुद्ध समाज को छोड़कर शेष विराट समाज तो प्रेम का अंध-शत्रु बना हुआ है ! विश्वविद्यालय इस संबंध में कपटाचार और मिथ्याचार की गिरफ्त में है। जब कहीं से भी प्रेम की रोशनी न आती हो तो स्वाभाविक है फेसबुक पर टिप्पणी के नाम पर अल्ल-बल्ल ही आयेगा।

प्रकाशजी के साथ-साथ आम आदमी की भी चाहत होती है कि प्रेम टिके। उसका आनंद इतना बड़ा है कि कौन उसे गँवाना चाहेगा ! लेकिन प्रेम का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि पकड़ने में ही वह खो जाता है। प्रेम को जितने जोर से हम मुट्ठी में बाँधना चाहते हैं, उतनी ही तेजी से वह मर जाता है। जैसे फूल को कोई मुट्ठी में पूरी ताकत से बंद कर ले तो जो दुर्दशा फूल की होगी वही दशा हमारे प्रेम की हो जाती है।



प्रेम एक फूल है। फूल को हम खिलाते नहीं, वह खिलता है। वह अपनी आंतरिक ऊर्जा और बाह्य प्रकृति के संयोग से खिलता है। हमारा प्रेम भी अपनी आंतरिक ऊर्जा की खिलावट है। दूसरा केवल सहारा बनता है। जो फूल आज खिला है, वह कल मुरझायेगा, परसों झड़ जायेगा। जीवंत प्रेम फूल की तरह एक दिन खिलता है और दूसरे दिन मुरझा जाता है। हाँ, प्लास्टिक का फूल सदा एक समान रहता है। विवाह एक प्लास्टिक का फूल है। उसमें टिकाऊपन तो है, लेकिन प्राणों की धड़कन नहीं, प्राणों को आप्लावित करने वाली भीनी खुशबू नहीं। प्रेम से हम शाश्वतता की माँग नहीं कर सकते।

प्रेम एक ही स्थिति में शाश्वत हो सकता है, जब वह हमारा स्वभाव बन जाय। जब वह दूसरों की पराश्रयता से मुक्त हो जाय। दूसरों की अधीनता से मुक्त होने का मतलब है कि अब हम इस स्थिति में नहीं हैं कि दूसरा प्रेम करेगा तो हम करेंगे, नहीं करेगा तो नहीं करेंगे। जब प्रेम हमारी प्रकृति बन जाय, तो जो भी हमारे संपर्क में आयेगा उसे हम प्रेम से नहला देंगे। इस अवस्था में स्त्री-पुरुष का भेद भी मिटने लगता है। अब तो स्त्री हो या पुरुष सभी हमारे प्रेम के पात्र होंगे। मनुष्य की तो बात ही क्या पशु-पक्षी भी हमारे प्रेम के अधिकारी होंगे। वनस्पितयों पर हमारा प्रेम बरसेगा। जिस समय कोई सामने न रहेगा, उस समय भी हम उदास नहीं होंगे, अंदर ही अंदर अपने आप में ही मुदित होंगे। जैसा गीता में कहा गया है- ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः।’ अपने आप में ही संतुष्ट, तृप्त और आनंदित। इसी तरह का प्रेम शाश्वत होता है, लेकिन जो प्रेम लेन-देन पर आधारित होता है, आधार के खिसकने से वह भी खिसक जाता है।

जिस भूमि पर हम सभी प्रेम करते हैं उसमंे एक प्रेमी की चाहत होती है कि प्रेमिका उसकी चाहत से भरी रहे, हमेशा उसकी याद करती रहे, उसी में डूबी रहे, दूसरे की तरफ उनका ध्यान न जाय। प्रेमी के प्रति उसकी ऊष्मा कभी ठंडी न पड़े। प्रेमिका भी प्रेमी से यही चाहती है। एक ही चीज की माँग दोनों करते हैं एक-दूसरे से और देना बंद कर देते हैं। यहीं संघर्ष का बीज पड़ जाता है। अब दोनों प्रेम करने के बजाय लड़ने लगते हैं। अधिकांश लोगों का प्रेम इसी जमीन पर जनमता है और धीरे-धीरे कलह से भर कर क्रोध, हिंसा और बिलगाव में बदल जाता है।

पूर्णतः आवेश युक्त प्रेम प्रायः क्षणिक होता है, क्योंकि दिल हमेशा एक समान रूप से नहीं धड़कता। तथापि प्रेम को टिकाऊ बनाया जा सकता है। इसे टिकाऊ बनाने के लिए बौद्धिक समझदारी आवश्यक है। कुछ थोड़े से समझदार प्रेमी होते हैं जो सोचते हैं कि जिन चीजों की माँग मैं प्रेमिका से करता हूँ क्यों नहीं उसे देना शुरू करूँ। प्रेम हमेशा प्रतिध्वनित होता है। अगर किसी कारण से प्रत्युत्तर न आवे तो वह धैर्य नहीं खोता और अपनी प्रेमिका को लांछित नहीं करता। ऐसा ही प्रेमी धीरे-धीरे अपने भीतर छिपी प्रेम-संपदा से परिचित होने लगता है और ज्यों-ज्यों परिचित होता जाता है, त्यों-त्यों उसका प्रेम पराधीनता से मुक्त होता जाता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ प्रेमी ही अपनी प्रेमिका को हृदय से स्वतंत्रता दे सकता है। ऐसा खिला हुआ मुक्त हृदय ही असली फेविकोल है जो माँग से ज्यादा दान को महत्व देता है, जो अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों की स्वतंत्रता का उतना ही ख्याल रखता है। मटुक-जूली के प्रेम में कुछ ऐसा ही फेविकोल है जिसकी मजबूती शानदार है। क्रमशः



14.01.11

You might also like:

* प्रेम की परिभाषा
* पीसू इंडिया न्यूज पोर्टल ( www.pisuindia.com) के द्वारा लिया गया साक्षात्कार
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प्रस्तुतकर्ता matukjuli पर ८:५६ अपराह्न
प्रतिक्रियाएँ:
2 टिप्पणियाँ:

ललित शर्मा ने कहा…


इश्क है दरिया प्यार का ,वा की उलटी धार।
जो उबरा सो डूब गया,औरजो डूबा सो पार॥
२६ जनवरी २०११ ३:२८ पूर्वाह्न
सुशील बाकलीवाल ने कहा…

निःसंदेह तमाम आलोचनाओं से परे ये प्रेम अब तक स्थाई रुप से आदर्श बना दिखता है ।
२६ जनवरी २०११ ९:२९ अपराह्न

शनिवार, 12 मार्च 2011

निःस्वार्थ प्रेम का अनुपम उदाहरण मटुकनाथ और जूली



सहारा चैनल इंदौर, के श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी की फेसबुक पर लिखी यह पंक्तियाँ साभार ली गई हैं -



मटुकनाथ और जूली का फेविकोल !

सब के जोड़ उखड़ गये,

इन दोनों के बचे हैं,

रहस्य क्या है ?

लिज हर्ले का अरुण नायर से

करिश्मा कपूर का संजय कपूर से

रणबीर कपूर का दीपिका पादुकोण से

प्रियंका चोपड़ा का हरमन बावेजा से

सोनाक्षी सिन्हा का आदित्य श्रॉफ से

सलमान का संगीता बिजलानी, ऐश्वर्या राय,

कैटरीना, सोमी अली, जरीन आदि से

सुष्मिता सेन का विक्रम भट्ट, संजय नारंग,

सबीर भाटिया, रणदीप हुड्डा, मानव मेनन,

बंटी सचदेव, वसीम अख्तर वगैरह से

अक्षय कुमार का रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी इत्यादि से

प्रीति जिंटा का नेस वाडिया से

कंगणा राणावत का अध्ययन सुमन से

सबके जोड़ खुल गये

. पर वाह क्या जोड़ है, मटुकनाथ और जूली का !!



प्रकाशजी फेसबुक पर हमारे मित्र हैं। लेकिन इसके पहले मार्च, 2007 में इंदौर-यात्रा के क्रम में ही हमारी मित्रता हो चुकी थी। उनके इस वक्तव्य पर फेसबुक में अनेक टिप्पणियाँ आयीं। सबने अपने-अपने मनोविकार प्रकट किये, विचार कहीं से नहीं आया। मैं सोचने लगा आखिर इसका रहस्य क्या है ? मटुक-जूली के प्रेम के टिकाऊपन का कारण ढूँढ़ने की कोशिश लोगों ने क्यों नहीं की ? अनुमान क्यों नहीं भिड़ाया ? क्या उनलोगों में विचार करने की क्षमता नहीं है ? उल्टा सीधा अनुमान भी नहीं लगा सके ! क्यों हमदोनों का नाम आते ही वे अपनी-अपनी मनोग्रंथियों में सिकुड़ गये ? यह बात तो सच है कि स्कूल-कॉलेजों में मौलिक ढंग से विचार करना नहीं सिखाया जाता। इसलिए वे विचार अगर नहीं कर पाये तो कोई आश्चर्य नहीं। विचार न सही, अगर वे प्रेम कर रहे होते तो दूसरों के प्रेम को समझने की क्षमता उनमें अपने आप आ गयी होती। बेचारे प्रेम करें भी तो कैसे, क्योंकि मुट्ठी भर प्रबुद्ध समाज को छोड़कर शेष विराट समाज तो प्रेम का अंध-शत्रु बना हुआ है ! विश्वविद्यालय इस संबंध में कपटाचार और मिथ्याचार की गिरफ्त में है। जब कहीं से भी प्रेम की रोशनी न आती हो तो स्वाभाविक है फेसबुक पर टिप्पणी के नाम पर अल्ल-बल्ल ही आयेगा।

प्रकाशजी के साथ-साथ आम आदमी की भी चाहत होती है कि प्रेम टिके। उसका आनंद इतना बड़ा है कि कौन उसे गँवाना चाहेगा ! लेकिन प्रेम का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि पकड़ने में ही वह खो जाता है। प्रेम को जितने जोर से हम मुट्ठी में बाँधना चाहते हैं, उतनी ही तेजी से वह मर जाता है। जैसे फूल को कोई मुट्ठी में पूरी ताकत से बंद कर ले तो जो दुर्दशा फूल की होगी वही दशा हमारे प्रेम की हो जाती है।



प्रेम एक फूल है। फूल को हम खिलाते नहीं, वह खिलता है। वह अपनी आंतरिक ऊर्जा और बाह्य प्रकृति के संयोग से खिलता है। हमारा प्रेम भी अपनी आंतरिक ऊर्जा की खिलावट है। दूसरा केवल सहारा बनता है। जो फूल आज खिला है, वह कल मुरझायेगा, परसों झड़ जायेगा। जीवंत प्रेम फूल की तरह एक दिन खिलता है और दूसरे दिन मुरझा जाता है। हाँ, प्लास्टिक का फूल सदा एक समान रहता है। विवाह एक प्लास्टिक का फूल है। उसमें टिकाऊपन तो है, लेकिन प्राणों की धड़कन नहीं, प्राणों को आप्लावित करने वाली भीनी खुशबू नहीं। प्रेम से हम शाश्वतता की माँग नहीं कर सकते।

प्रेम एक ही स्थिति में शाश्वत हो सकता है, जब वह हमारा स्वभाव बन जाय। जब वह दूसरों की पराश्रयता से मुक्त हो जाय। दूसरों की अधीनता से मुक्त होने का मतलब है कि अब हम इस स्थिति में नहीं हैं कि दूसरा प्रेम करेगा तो हम करेंगे, नहीं करेगा तो नहीं करेंगे। जब प्रेम हमारी प्रकृति बन जाय, तो जो भी हमारे संपर्क में आयेगा उसे हम प्रेम से नहला देंगे। इस अवस्था में स्त्री-पुरुष का भेद भी मिटने लगता है। अब तो स्त्री हो या पुरुष सभी हमारे प्रेम के पात्र होंगे। मनुष्य की तो बात ही क्या पशु-पक्षी भी हमारे प्रेम के अधिकारी होंगे। वनस्पितयों पर हमारा प्रेम बरसेगा। जिस समय कोई सामने न रहेगा, उस समय भी हम उदास नहीं होंगे, अंदर ही अंदर अपने आप में ही मुदित होंगे। जैसा गीता में कहा गया है- ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः।’ अपने आप में ही संतुष्ट, तृप्त और आनंदित। इसी तरह का प्रेम शाश्वत होता है, लेकिन जो प्रेम लेन-देन पर आधारित होता है, आधार के खिसकने से वह भी खिसक जाता है।

जिस भूमि पर हम सभी प्रेम करते हैं उसमंे एक प्रेमी की चाहत होती है कि प्रेमिका उसकी चाहत से भरी रहे, हमेशा उसकी याद करती रहे, उसी में डूबी रहे, दूसरे की तरफ उनका ध्यान न जाय। प्रेमी के प्रति उसकी ऊष्मा कभी ठंडी न पड़े। प्रेमिका भी प्रेमी से यही चाहती है। एक ही चीज की माँग दोनों करते हैं एक-दूसरे से और देना बंद कर देते हैं। यहीं संघर्ष का बीज पड़ जाता है। अब दोनों प्रेम करने के बजाय लड़ने लगते हैं। अधिकांश लोगों का प्रेम इसी जमीन पर जनमता है और धीरे-धीरे कलह से भर कर क्रोध, हिंसा और बिलगाव में बदल जाता है।

पूर्णतः आवेश युक्त प्रेम प्रायः क्षणिक होता है, क्योंकि दिल हमेशा एक समान रूप से नहीं धड़कता। तथापि प्रेम को टिकाऊ बनाया जा सकता है। इसे टिकाऊ बनाने के लिए बौद्धिक समझदारी आवश्यक है। कुछ थोड़े से समझदार प्रेमी होते हैं जो सोचते हैं कि जिन चीजों की माँग मैं प्रेमिका से करता हूँ क्यों नहीं उसे देना शुरू करूँ। प्रेम हमेशा प्रतिध्वनित होता है। अगर किसी कारण से प्रत्युत्तर न आवे तो वह धैर्य नहीं खोता और अपनी प्रेमिका को लांछित नहीं करता। ऐसा ही प्रेमी धीरे-धीरे अपने भीतर छिपी प्रेम-संपदा से परिचित होने लगता है और ज्यों-ज्यों परिचित होता जाता है, त्यों-त्यों उसका प्रेम पराधीनता से मुक्त होता जाता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ प्रेमी ही अपनी प्रेमिका को हृदय से स्वतंत्रता दे सकता है। ऐसा खिला हुआ मुक्त हृदय ही असली फेविकोल है जो माँग से ज्यादा दान को महत्व देता है, जो अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों की स्वतंत्रता का उतना ही ख्याल रखता है। मटुक-जूली के प्रेम में कुछ ऐसा ही फेविकोल है जिसकी मजबूती शानदार है। क्रमशः



14.01.11

2 टिप्पणियाँ:

ललित शर्मा ने कहा…


इश्क है दरिया प्यार का ,वा की उलटी धार।
जो उबरा सो डूब गया,औरजो डूबा सो पार॥

सुशील बाकलीवाल ने कहा…

निःसंदेह तमाम आलोचनाओं से परे ये प्रेम अब तक स्थाई रुप से आदर्श बना दिखता है ।







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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

और भी कुछ

मुस्कराहट का कोई मोल नहीं होता, कुछ रिश्तों का कोई टोल नहीं होता

वैसे दोस्त तो मिल जाते हैं हर रास्ते पर, मगर हर कोई आपकी तरह अनमोल नहीं होता।






सावन ने भी किसी से प्यार किया था, उसने उसे बादल का नाम दिया था, रोते थे दोनों एक दूसरे की जुदाई में, लोगों ने उसे बारिश का नाम दिया था।






जीवन में सभी अच्छे संबंधों को बनाये रखना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि जिन संबंधों को आपने बनाकर रखा है उनसे कितना अच्छा व्यवहार करते हैं।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

जीवन के सन्देश

एक दिन तमन्ना ने जिन्दगी के आँचल में सिर रखकर पूछा, मई पूरी कब हूंगी ? तब जिन्दगी ने मुस्करा कर कहा, जो पूरी हो जाए वो तमन्ना ही क्या।



हसरत रही की वो साथ निभाते , आँखों में बसकर न निगाहों से गिराते,
सुनते ही नहीं अपने दिल की सदा, हम अपनी वफ़ा का यकीन कैसे दिलाते।


ऐसा कहा गया है कि जब आप हंसते हैं तो आप खुद ईश्वर की प्रार्थना करते हैं मगर जब आप दूसरों के लिए ख़ुशी बनाते हैं तो ईश्वर खुद आप के लिए प्रार्थना करता है।



लो इंसान खुद के लिए जीता है वह एक असफल आदमी है, भले ही उसके पास बहुत सारा धन, संपत्ति, शक्ति और रुतबा हो, फिर भी वह नाकामयाब है।



फूल कभी दो बार नहीं खिलता, जनम कभी दो बार नहीं मिलता

यूँ मिलने को तो मिल जाते हैं हजारों मगर दिल से चाहने वाला बार बार नहीं मिलता।



सावन के बारिश की भी अपनी अजब कहानी है, किसी के लिए आंसू है यह तो किसी के लिए बस पानी है।



`रिश्ते` और `रास्ते` के बीच एक अजीब सम्बन्ध है..., कभी रिश्ते निभाते निभाते रस्ते खो जाते , तो कभी रास्ते पर चलते चलते `रिश्ते` बन जाते हैं।



...दोस्ती... ये शब्द नहीं जो मिट जाए , उम्र नहीं जो ढल जाये , सफ़र नहीं जो मुकाम पाए , ये वो एहसास है जिसके लिए यदि लिखा जाए तो जिंदगी कम पड़ जाये।



वैल्यू ऑफ़ रिलेशन इज नॉट दैट होंऊ मच यू फील हैपी विथ सम वन ... बट इट इज दैट होंऊ मच सम वन फील्स एलोन विदाउट यू ।




रेन इज नॉट वनली ड्रोप्स ऑफ़ वाटर, इट इज द लव ऑफ़ स्काई फॉर अर्थ, दे नेवर मीट इच अदर बट सेंड्स लव दिस वे।




अच्छा दोस्त मैथ्स के जीरो जैसा होता है, जिसकी वैसे तो कोई कीमत नहीं होती मगर वो जिसके साथ इमानदारी से जुड़ जाए उसकी कीमत दस गुना बढ़ जाती है।




मुस्कराहट का कोई मोल नहीं होता, कुछ रिश्तों का कोई टोल नहीं होता

वैसे दोस्त तो मिल जाते हैं हर रास्ते पर, मगर हर कोई आपकी तरह अनमोल नहीं होता।






सावन ने भी किसी से प्यार किया था, उसने उसे बादल का नाम दिया था, रोते थे दोनों एक दूसरे की जुदाई में, लोगों ने उसे बारिश का नाम दिया था।






जीवन में सभी अच्छे संबंधों को बनाये रखना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि जिन संबंधों को आपने बनाकर रखा है उनसे कितना अच्छा व्यवहार करते हैं।
















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