शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

सफर निशा का

यह पांच कवितायेँ मैंने वंदना जी के ब्लॉग से आभार के साथ ली हैं। इसके पीछे मेरा उद्देश्य अपने पाठकों तक इन्हें पहुँचाना है. अच्छी पंक्तियों के लिए वंदना जी बधाई की पात्र हैं.



सफ़र निशा का
स्याह रात का तन्हा सफर
ज्यों प्रियतम बिन सजनी का श्रृंगार
किस मिलन को आतुर निशा
पल -पल का अँधेरा समेट रही है
भोर के उजास से मिलन को
क्यूँ विरह के पल गिन रही है
ये क्षण -क्षण गहराता अँधियारा
तन्हाईयाँ बढाता जाता है
निशा के गहरे दामन को
और गहराता जाता है
कौन बने तन्हाई का साथी
स्याह रात के स्याह सायों के सिवा
विरह अगन में दग्ध निशा
ज्यों बेवा नूतन श्रृंगार किए हो
प्रिय मिलन की आस में जैसे
विरहन का कफ़न ओढ़ लिया हो



मत छूना
मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को
इस जनम में
मैं अमानत हूँ
किसी और की
तेरा प्यार नही
गैर हूँ तेरे लिए
मेरी पाकीजा रूह
तेरे रूहानी प्रेम के
लिए नही बनी
इस जनम तो
रूह की क़ैद से
आजाद करो
फिर किसी जनम में
शायद तेरे रूहानी
प्रेम की ताकत
मेरी रूह को पुकारे
और हमारी रूहें
उस जनम में
अपने रूहानी प्रेम की
प्यास बुझायें
उस पल तक प्रतीक्षा करो
और तब तक
मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को



आ मेरी चाहत .................

मेरी चाहत
तुझे दुल्हन बना दूँ
तुझे ख्वाबों के
सुनहले तारों से
सजा दूँ
तेरी मांग में
सुरमई शाम का
टीका लगा दूँ
तुझे दिल के
हसीन अरमानों की
चुनरी उढा दूँ
अंखियों में तेरी
ज़ज्बातों का
काजल लगा दूँ
माथे पर तेरे
दिल में मचलते लहू की
बिंदिया सजा दूँ
अधरों पर तेरे
भोर की लाली
लगा दूँ
सिर पर तेरे
प्रीत का
घूंघट उढा दूँ

मेरी चाहत
तुझे दुल्हन बना दूँ


मेरे संवेदनहीन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
दर्द के अहसास से विहीन पिया
दर्द की हर हद से गुजर गया कोई
और तुम मुस्कुराकर निकल गए
कैसे घुट-घुटकर जीती हूँ मैं
ज़हर के घूँट पीती हूँ मैं
साथ होकर भी दूर हूँ मैं
ये कैसे बन गए ,जीवन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
जिस्मों की नजदीकियां
बनी तुम्हारी चाहत पिया
रूह की घुटती सांसों को
जिला न पाए कभी पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आंखों में ठहरी खामोशी को
कभी समझ न पाए पिया
लबों पर दफ़न लफ्जों को
कभी पढ़ न पाए पिया
ये कैसी निराली रीत है
ये कैसी अपनी प्रीत है
तुम न कभी जान पाए पिया
मैं सदियों से मिटती रही
बेनूर ज़िन्दगी जीती रही
बदरंग हो गए हर रंग पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आस का दीपक बुझा चुकी हूँ
अपने हाथों मिटा चुकी हूँ
अरमानों को कफ़न उढा चुकी हूँ
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया



सात दिनों का मेला
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी
ख्वाब बरसों के बुनता रहा
पल भी चैन न पाया कभी
क्षण क्षण जीता मरता रहा
पर ख़ुद को न जान पाया कभी
आठवें दिन की आस में
सात दिन भी न जी पाया कभी
प्राणी जीवन सात दिनों का मेला है
कुछ तो यत्न करना होगा
सात दिनों में मरने से पहले
भवसिंधु से भी तरना होगा
जो जीवन भर न कर पाया
वो यत्न अब करना होगा
जैसा उज्जवल भेजा उसने
वैसा उज्जवल बनना होगा
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी