शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

सफर निशा का

यह पांच कवितायेँ मैंने वंदना जी के ब्लॉग से आभार के साथ ली हैं। इसके पीछे मेरा उद्देश्य अपने पाठकों तक इन्हें पहुँचाना है. अच्छी पंक्तियों के लिए वंदना जी बधाई की पात्र हैं.



सफ़र निशा का
स्याह रात का तन्हा सफर
ज्यों प्रियतम बिन सजनी का श्रृंगार
किस मिलन को आतुर निशा
पल -पल का अँधेरा समेट रही है
भोर के उजास से मिलन को
क्यूँ विरह के पल गिन रही है
ये क्षण -क्षण गहराता अँधियारा
तन्हाईयाँ बढाता जाता है
निशा के गहरे दामन को
और गहराता जाता है
कौन बने तन्हाई का साथी
स्याह रात के स्याह सायों के सिवा
विरह अगन में दग्ध निशा
ज्यों बेवा नूतन श्रृंगार किए हो
प्रिय मिलन की आस में जैसे
विरहन का कफ़न ओढ़ लिया हो



मत छूना
मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को
इस जनम में
मैं अमानत हूँ
किसी और की
तेरा प्यार नही
गैर हूँ तेरे लिए
मेरी पाकीजा रूह
तेरे रूहानी प्रेम के
लिए नही बनी
इस जनम तो
रूह की क़ैद से
आजाद करो
फिर किसी जनम में
शायद तेरे रूहानी
प्रेम की ताकत
मेरी रूह को पुकारे
और हमारी रूहें
उस जनम में
अपने रूहानी प्रेम की
प्यास बुझायें
उस पल तक प्रतीक्षा करो
और तब तक
मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को



आ मेरी चाहत .................

मेरी चाहत
तुझे दुल्हन बना दूँ
तुझे ख्वाबों के
सुनहले तारों से
सजा दूँ
तेरी मांग में
सुरमई शाम का
टीका लगा दूँ
तुझे दिल के
हसीन अरमानों की
चुनरी उढा दूँ
अंखियों में तेरी
ज़ज्बातों का
काजल लगा दूँ
माथे पर तेरे
दिल में मचलते लहू की
बिंदिया सजा दूँ
अधरों पर तेरे
भोर की लाली
लगा दूँ
सिर पर तेरे
प्रीत का
घूंघट उढा दूँ

मेरी चाहत
तुझे दुल्हन बना दूँ


मेरे संवेदनहीन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
दर्द के अहसास से विहीन पिया
दर्द की हर हद से गुजर गया कोई
और तुम मुस्कुराकर निकल गए
कैसे घुट-घुटकर जीती हूँ मैं
ज़हर के घूँट पीती हूँ मैं
साथ होकर भी दूर हूँ मैं
ये कैसे बन गए ,जीवन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
जिस्मों की नजदीकियां
बनी तुम्हारी चाहत पिया
रूह की घुटती सांसों को
जिला न पाए कभी पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आंखों में ठहरी खामोशी को
कभी समझ न पाए पिया
लबों पर दफ़न लफ्जों को
कभी पढ़ न पाए पिया
ये कैसी निराली रीत है
ये कैसी अपनी प्रीत है
तुम न कभी जान पाए पिया
मैं सदियों से मिटती रही
बेनूर ज़िन्दगी जीती रही
बदरंग हो गए हर रंग पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आस का दीपक बुझा चुकी हूँ
अपने हाथों मिटा चुकी हूँ
अरमानों को कफ़न उढा चुकी हूँ
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया



सात दिनों का मेला
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी
ख्वाब बरसों के बुनता रहा
पल भी चैन न पाया कभी
क्षण क्षण जीता मरता रहा
पर ख़ुद को न जान पाया कभी
आठवें दिन की आस में
सात दिन भी न जी पाया कभी
प्राणी जीवन सात दिनों का मेला है
कुछ तो यत्न करना होगा
सात दिनों में मरने से पहले
भवसिंधु से भी तरना होगा
जो जीवन भर न कर पाया
वो यत्न अब करना होगा
जैसा उज्जवल भेजा उसने
वैसा उज्जवल बनना होगा
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

महेमान बन के वो

जाने कहाँ से आया था महेमान बन के वो।

रहने लगा था दिल में भी पहचान बनके वो।

वो आया जैसे मेरा मुकद्दर सँवर गया।

मेरा तो रंग रुप ही मानो निख़र गया।

करने लगा था राज भी सुलतान बन के वो।


वो जानता था उसकी दीवानी हुं बन गई।

उसके क़्दम से मानो सयानी सी बन गई।

ख़्वाबों में जैसे छाया था अरमान बनके वो।

हरवक़्त बातें करने की आदत सी पड गई।

उस के लिये तो सारे जहां से मैं लड गई।

एक दिन कहाँ चला गया अन्जान बनके वो।

कहते हैं “राज़” प्यार, वफ़ा का है दुजा नाम।

ईस पे तो जान देते हैं आशिक वही तमाम।

उस रासते चला है जो परवान बन के वो।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

भविष्य सुधारने के लिए आप क्या हैं? सपने देखते हैं और उसे साकार करने की कोशिशें करते हैं। सपने साकार हुए तो अच्छा और टूट गये तो .....? डर यहीं होता है, घबराहट यहीं होती है। इलाहाबाद में मेरे एक मित्र श्री सतीश श्रीवास्तव ने सुझाया है कि भविष्य संवारने के सिलसिले में मैं अपने ब्लाग पर गोपाल दास नीरज की उस कविता को पूरा का पूरा रखूं, जिसमें उन्होंने फरमाया है कि कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है, चंद खिलौने के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। सो, मित्र की बातों पर अमल करते हुए कवि व गीतकार नीरज की रचना मैं यहां ऱखता हूं। इस आशा के साथ कि मेरे मित्र की बातें सही साबित हों और भविष्य संवारने की दिशा में जुटे लोगों में इससे कुछ आशाओं का संचार हो पाये। यह कविता (और शायद भावनाएं भी ) साथी कौशल किशोर शुक्ला के ब्लॉग से मेरे एक अन्य साथी भूपेश जी ने मार ली थी। उनके ब्लॉग से मैंने झटक लिया। इस उम्मीद के साथ की वह मेरी भावनाओं को समझेंगे।

छिप-छिप अश्रु बहाने वालो
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर सोया
हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालो
डूबे बिना नहाने वालो
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या
हैखुद ही हल हो गयी समस्या
आंसू गर नीलाम हुए तो समझो
पूरी हुई तपस्या
रुठे दिवस मनाने वालो
फटी कमीज सिलाने वालो
कुछ दीयों के बुझ जाने से
आंगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहां पर
केवल जिल्द बदलती
पोथी जैसे रात उतार
चांदनी पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालो
चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से
बचपन नहीं मरा करता है।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

यह कैसे 'सचÓ का हो रहा सामना

स्टार प्लस पर इन दिनों प्रसारित हो रहा 'सच का सामनाÓ कार्यक्रम चर्चा का विषय बना है। टीवी देखने वाला प्रत्येक व्यक्ति यह सोचने को मजबूर है कि हम कहीं बाइसवीं सदी में तो नहीं पहुंच गए हैं। यह कौन सा सच दिखाया जा रहा है। बच्चों पर इसका क्या असर पड़ेगा। खुलेआम भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। मगर कोई इस बारे में सोचने को तैयार नहीं है। आश्चर्य इस बात का है कि अगर कोई ऐसे कार्यक्रमों को गलत बताता है तो तमाम लोग उसे बेशर्मी केसाथ बीसवीं सदी का इंसान बताते हैं। कार्यक्रम में कुछ सवाल जिस तरह के होते हैं उन्हें सुनकर वहां मौजूद संबंधित महिला या पुरुष के परिजनों को पता नहीं शर्म आती है या नहीं लेकिन टीवी देखने वाले पंचानबे फीसदी लोग शरम से चैनल बदल देते हैं। कार्यक्रम के होस्ट राजीव खंडेलवाल का यह तर्क कि जिसमें हिम्मत है वही सच का सामना कर सकता है, कतई उचित नहीं है। तमाम वाकया किसी के साथ घटनात्मक होता है तो कोई छल का शिकार हो जाता है। कई लोगों के साथ अपने लोग ऐसा विश्वासघात कर जाते हैं कि वह जीवनपर्यंत उसे नहीं भूल पाता। यही कारण है कि ऐसी घटनाओं के शिकार लोगों के नाम प्रकाशित करने में अखबार गुरेज करते हैं। एफआईदर्ज होने के बाद भी उनके नाम (खास तौर से महिलाओं के) प्रकाशित नहीं किए जाते। यह नैतिकता है। भारतीय धर्मशास्त्रों में भी कहा गया है कि 'सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं अप्रियं, सत्यं च नानृतंब्रूयात एष धर्म: सनातन:Ó। कार्यक्रम से जुड़े लोगों को कम से कम कुछ इसी से सीख लेना चाहिए। होस्ट राजीव खंडेलवाल का यह तर्क कतई उचित नहीं है कि सच स्वीकार करने में बुराई क्या है। मेरा अपना मानना है कि यह सच स्वीकार करना नहीं है, बल्कि पैसे केलिए हम कितने निम्न स्तर तक गिर सकते हैं, यही इसका संदेश है। कार्यक्रम को लेकर तमाम लोग चिंतित भी हैं। कुछ लोगों ने इसे टीवी और अखबार के माध्यम से प्रकट भी किया है। वेब दुनिया पर स्मृति जोशी का एक पोस्ट इससे संबंधित है। उसमें काफी कुछ कहा गया है। मैं साभार यहां उसे प्रकाशित कर रहा हूं-

-सच का ये कैसा सामना है?

- स्मृति जोशी
स्टार प्लस पर प्रसारित हो रहे रियलिटी शो 'सच का सामना' ने इन दिनों एक नई बहस को जन्म दे दिया है। यहाँ तक कि संसद में बैठे जनता के नुमांइदे भी जोर-शोर से इस शो पर बवाल उठा रहें हैं। सवाल यह है कि क्या इस शो को इतनी पब्लिसिटी मिलनी चाहिए थी जितनी विरोध के स्वर उठने से मिल रही है। क्या यह शो रिश्ते, दोस्ती, परिवार, मर्यादा सबकी धज्जियाँ उड़ा रहा है? एक शो, जो आपकी आंतरिक गहराई के तमाम छुपे हुए बिन्दुओं की पड़ताल करता है और सरेआम वो सब उगलवा लेता है जो कहीं दबा पड़ा था। एक ऐसा शो जो झूठ पकड़ने वाली मशीन पर लोगों को बैठा कर अपनी सारी शर्म, मर्यादा और नैतिकता को दाँव पर लगवाता है। एक ऐसा शो, जो घरों की दीवारें भेद कर बेडरूम तक पहुँचता है और पति-पत्नी के बीच की नितांत एकान्तिकता को चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है। क्या यह सब प्रतिभागियों को मुश्किलों के घेरे में खड़ा कर देगा? आज हम उस समाज में खड़े हैं जहाँ कहने को हमारे पास पड़ोसी के दुख तकलीफ समझने की फुरसत नहीं है। मगर भरपूर फुरसत है उसकी निजी जिंदगी में झाँकने की। 'सच का सामना' जैसा शो और कुछ नहीं ऐसी ही लिजलिजी मानसिकता, कुंठा और रुग्णता की परिष्कृत प्रस्तुति है। अब ताक-झाँक,गॉसिप, कानाफूसी से आगे की सोचिए। घर बैठे देखें अपने ह‍ी किसी पड़ोसी की पर्सनल लाइफ का लाइव शो। सच का सामना में आरंभ में बड़े हल्क-फुल्के प्रश्न किए जाते हैं ताकि जवाब देने वाले और झूठ पकड़ने वाली मशीन के बीच एक ट्यूनिंग स्थापित हो जाए। उसके बाद शुरू होता है कि निहायत ही शर्मनाक और अशिष्ट प्रश्नों का दौर। बानगी की जरूरत तो नहीं पर फिर भी एक नजर मार ही लें। * क्या आपने कभी अपने पति के अलावा किसी गैर मर्द के साथ संबंध बनाना चाहा है? * क्या कभी-कभी आपका मन हुआ कि अपने पति की गला दबा कर हत्या कर दें? * क्या आपकी कोई नाजायज औलाद है? * क्या आपने कभी अपनी बेटी की उम्र की लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहा है? * क्या आपने कभी किसी शर्त के कारण सार्वजनिक स्थान पर सारे कपड़े उतारे हैं? *क्या पति के अलावा आपका कोई ब्वॉयफ्रेंड है? * क्या आपको गर्भवती होने पर कॉलेज से निकाल दिया गया था? उफ, ये उबकाई ला देने वाली हद पार कर चुके सवाल हमारी किस संस्कृति का कौन सा पहलू है? शो के होस्ट राजीव खंडेलवाल का कहना है कि यह शो सच बोलना सीखाता है। सच बोल कर आप परम शांति का अनुभव करते हैं। बरसों से जो बोझ आपके दिलों के किसी सुनसान एकांत में पड़ा था वह उतर जाता है। दूसरे शब्दों में वह बोझ जो सिर्फ आपका था अब वह समाज का है, आपके प्रियजनों का है, आपके परिवार का है। राजीव अगर संस्कृति के इतने ही ज्ञाता है तो उन्हें यह भी पता होगा कि सत्यं वदामि, प्रियं वदामि का संदेश हमारे पुरखों ने यूँ ही तो नहीं दिया होगा। सत्य अगर अप्रिय है तो उसका सामने ना आना ही श्रेयस्कर है। कुंती ने जीवन भर अपने पुत्र कर्ण के विषय में छुपाया लेकिन जब मृत्यु के पश्चात उसके तर्पण की बारी आई तब उसने युधिष्ठिर से कहा कि अपने बड़े भाई कर्ण के लिए भी अंजुरि में गंगाजल लेकर उसके मोक्ष की कामना करों। कहने का अर्थ यह है कि जब तक आवश्यक ना हो अतीत के दुर्बल क्षणों को स्मरण ना करना ही समाज हित में है। जिस सत्य से किसी के जीवन का सर्वनाश हो सकता है। किसी की तमाम जिंदगी सवालों के घेरे में आ सकती है। इसके लिए कौन जवाबदेह होगा? हमारी जिंदगी सिर्फ हमारी ही नहीं होती। हमसे जुड़ी कई और जिंदगियाँ होती है ‍जिनके प्रति हम जिम्मेदार होते हैं। जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे नैतिक दायित्व होते हैं। फिर सच को कबूलने का ये कौन सा तरीका है कि कुछ रुपए के लिए हम उन सबको शर्मसार कर दें। और सबसे बड़ी बात सच ही स्वीकार करना है तो टीवी का शो क्यों और किसलिए ? हमारे चर्च, मंदिर, मस्जिद जैसे पवित्र स्थल हैं ना! सबसे बड़ी अदालत हमारा अपना मन होता हैं। कई बार मन नहीं चाहता सामाजिक नियमों के खिलाफ जाना मगर परिस्थितियों पर आदमी का वश नहीं होता और हममें से हर कोई किसी ना किसी कमजोर क्षण का शिकार होते हैं लेकिन वहीं गिरे नहीं पड़े होते बल्कि खुद ही उठ खड़े होते हैं। यही जीवन का सच है कि जीवन जैसा जिस रूप में हमारे सामने आए हम उसका सामना करें लेकिन अपने प्रियजनों को उसकी आँच से भी बचाएँ। किन्तु सच का ये कैसा सामना है कि बरसों पहले घटित किसी घटना को री-कॉल करों जिन्हें नहीं पता है उन्हें भी बताओ। रुपए जीत कर और संबंधों को हार कर जाओ। अब भला कौन पूछे शो के निर्माताओं से कि सारी दुनिया के सामने सच उगल देने से मनोवैज्ञानिक रूप से परेशानी और बढ़ेगी या कम होगी? वो सच जो कल तक केवल आपका अपना था आज सारी दुनिया के मखौल का विषय है। वो सच, जिससे रिश्तों की मजबूत दीवारें दरक रहीं हैं। वो सच, जो विश्वास की छाँह में तपिश सुलगा रहा है, भला किस नजर से समाज का कल्याण कर रहा हैं?
एक शो, जो आपकी आंतरिक गहराई के तमाम छुपे हुए बिन्दुओं की पड़ताल करता है और सरेआम वो सब उगलवा लेता है जो कहीं दबा पड़ा था। एक ऐसा शो जो झूठ पकड़ने वाली मशीन पर लोगों को बैठा कर अपनी सारी शर्म, मर्यादा और नैतिकता को दाँव पर लगवाता है।
क्या पत्नी के सच को जानकर कोई पति इतना उदार होगा कि करोड़ों रूपए कमा कर लाने का 'सच' उसके अतीत को झूठला देगा? और सबसे बड़ी बात तो यह कि विवाह के इतने बरस बाद जो अतीत बेमानी हो गया था। अचानक वो इतना अहम हो जाएगा कि बरसों की सांमजस्यता, त्याग और प्यार की गहरी नींव उखड़ जाएगी? एक बेमानी सच भूला देगा साथ-साथ बिताए वक्त को, सुख-दु:ख को, छोटी-छोटी खुशियों को, साथ झेलें संकट को? रुपयों के लालच में अपने जीवन को होम करने की ये कैसी कुप्रथा आरंभ की जा रही है? शो के जिम्मेदार लोगों में एक नाम सिद्धार्थ बसु का है। विश्वास नहीं होता कि कभी क्विज टाइम जैसा स्तरीय शो देने वाला मास्टर माइंड टीआरपी और रूपयों की चमक में अपनी दृष्टि और दूरदर्शिता दोनों खो बैठेगा। रहा सवाल संसद का, तो क्या करोड़ों रूपए खर्च करने वाले हमारे सांसदों के सामने देश के अहम मुद्दे पानी के साथ बह गए हैं? संसद में मामला अगर सचमुच नैतिकता और संस्कृति बचाने के लिए उठा होता तो ठीक था लेकिन इस प्रकरण में तो उल्टे शो को ही पब्लिसिटी हासिल हुई है। ऐसे मुद्दे संसद का कीमती समय नष्ट करने के लिए नहीं है बल्कि इनकी उपेक्षा करना इनकी लोकप्रियता घटाने का सबसे सही समाधान है। ऐसे मुद्दों के लिए समाज है और समाज की समस्याओं के लिए संसद है। सांसद अपने ही 'सच' का ईमानदारी से सामना कर लें कि उन्हें यहाँ जनता ने क्यों और किसलिए भेजा हैं तो शायद ऐसे मुद्दों का सहारा लेकर उन्हें संसद में टाइम पास ना करना पड़े। 'सच का सामना' तो अब शो के निर्माताओं को करना होगा कि वह जनता का सामना करें और बताएँ कि ‍इस फुहड़ शो के माध्यम से अब तक कितना कमाया? कितनी टीआरपी झोली में डाली। है कोई जो करे इनका पोलीग्राफी टेस्ट या ब्रैन मैपिंग? बैठाएँ जरा इनको, उस कुर्सी पर जो सच में झूठ पकड़ती है।

(साभार वेब दुनिया )

बुधवार, 29 जुलाई 2009

जीवन

जब तक स्पंदन हैजीवन है
जगत है ,पथ है, विपथ है, राग है , विराग है,
जीवन की साँझ है, और सुप्रभात है,
पराई साँझों का,
उधार लिए हुए अस्तित्त्व का सारा यह खेल है,
किंतु इस खेल में, मन रम गया है जब से देखा है,
अबोध से बालक का चेहरा
सृष्टि काकलरव गान करता हुआ
सावन तेरे तन मन से भीगकर लाल हो चुका है
और मैं स्वप्नों के वन्दनवार सजाये चल पड़ा हूँ
ईस्ट की साँझ में
तुम्हारी अभिलाषा लिए
अपना तो कुछ भी नहीं
जिस पर मैं दंभ करूँ
फ़िर भी जीवन के सारे मोह सजाये आ गया हूँ
तुम्हारे शहर की देहरी पर
स्वीकार- अस्वीकार के प्रश्न से अनभिज्ञ ।

जीवन पथ

शाश्वत वसंत की खोज में
मैं चलूँ , तुम चलो
किंतु थक हारकर लौटें न अब
आओ स्वप्न ये साकार कर लें
जीवन के गरल को पीते-पीते
अमृत का ज्ञान जागा
शाश्वत जीवन की खोज में ,
मैं चलूँ तुम चलो ।
आँधियों की इस क्रीड में,
कब तक पलते पुषते रहेंगे
जीवन के स्वर्णिम क्षण ?
कब तक कन्धों पर
शिलाओं का बोझ लिए चलना होगा,
आओ जीवन के विहान से ही,
कुछ क्षण उधार ले लें
और अमित बना डालें
अस्तित्व का सीमांकन
किंतु पथ का प्रदीप कहाँ खोजें हम ?
विवश आत्मा में , बसी हुई थकी हुई
अकुलाती सांसों की डोर को
कहाँ तक खींचें अब
इस अंतहीन यात्रा से
हम कभीं हारें न अब
आओ स्वप्न ये साकार कर लें ।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

वाह री पुलिस

पुलिस अपनी जिम्मेदारियोंं के प्रति कितनी गंभीर है इसका ताजा उदाहरण है इलाहाबाद की एक घटना। एक प्रेमी जोड़े को एकांत में बतियाते देख सिपाही से लेकर डीआईजी तक यह नहीं समझ सके कि उनकी क्या जिम्मेदारी है। यह बताने पर भी कि दोनों की सगाई हो चुकी है, कोई उन्हें बेइज्जत करने से बाज नहीं आया। वे थाने ले जाए गए। दोनों केपरिजन भी बुला लिए गए। परिजनों ने भी बताया कि उनकी सगाई हो चुकी है, जल्द ही शादी होने वाली है। इसकेबावजूद उन्हें आइंदा ऐसे न बतियाने की चेतावनी दी गई। इस मामले में मीडिया के लोग भी कम दोषी नहीं रहे। चटखारेदार खबर के चक्कर में उन्होंने ही पुलिस को फोन किया और प्रेमी जोड़े को सरेराह तमाशा बनवा दिया। इस मामले में अमर उजाला ने जिम्मेदारी का परिचय देते हुए पुलिस और मीडियाकर्मियों दोनों की खिंचाई की। जिम्मेदारी से भरा उसका यह कदम सराहनीय है। पूरी खबर इस प्रकार है- पुलिस ने प्रेमी जोड़े का बनाया तमाशा
इलाहाबाद। इस शहर में पुलिस लूटमार और छेडख़ानी की घटनाएं भले न रोक पाए लेकिन अगर कहीं कोई प्रेमी जोड़ा एकांत में बतियाने बैठ जाए तो तुरंत हरकत में आ जाती है। प्रेमी जोड़ों को बेइज्जत करते हुए थाने ले जाने और वहां उनके प्रेम का तमाशा बनाने में पुलिस कोई कसर नहीं छोड़ती। क्राइम कंट्रोल की बजाय जिले में खाकी वर्दीधारी मोरल पुलिसिंग पर ज्यादा ध्यान देते दिख रहे हैं। अफसर भी इस पर कुछ बोल नहीं रहे। सोमवार २८ जुलाई को भी शहर की पुलिस ने सगाई होने के बाद आज पार्क के बाहर कार में बातचीत करते एक जोड़े को शर्मशार कर डाला। पुलिस उन्हें थाने खींच ले गई। इस करतूत के लिए पुलिसवालों से ज्यादा दोषी रहे मीडिया के लोग।
मजाक बना दिया पुलिस ने
दोपहर बाद करीब चार बजे की बात है। चंद्रशेखर आजाद पार्क के बाहर कार में एक युवक और युवती बातचीत कर रहे थे। प्रेम संबंध था इसलिए वैसे ही एक-दूसरे से बर्ताव भी कर रहे थे। वहां से गुजर रहे दो प्रेस फोटोग्राफरों की उन पर नजर पड़ी तो उन्हें लगा कि ये तो चटखारेदार खबर बन सकती है। उन्होंने तुरंत कर्नलगंज पुलिस को फोन कर दिया और खड़े होकर फोटो खींचने लगे। लूटपाट की सूचना पर देर से पहुंचने वाली पुलिस भी कुछ ही पल में आ पहुंची। गश्ती चीता जिप्सी के साथ खुद इंस्पेक्टर कर्नलगंज आ धमके। यह जानते हुए भी कि कार के भीतर युवक-युवती हैं, पुलिस ने कार का दरवाजा इस ढंग से जबरन खोला मानो उसमें अपराधी बैठे हों। पुलिस उन्हें हड़काते हुए पूछताछ करने लगी। पुलिस की घेराबंदी देख वहां भीड़ लग गई। तब भी पुलिस बाज नहीं आई जिसकी वजह से सड़क पर जाम लग गया।
डीआईजी भी पहुंच गए
मानो इतना ही काफी नहीं था। डीआईजी चंद्रप्रकाश भी वहां पहुंच गए। माजरा समझने के बावजूद उन्होंने पुलिस को आदेश दिया कि प्रेमी युगल को थाने ले जाओ। जबकि वह उन दोनों को डांटकर घर भी भेज सकते थे।
थाने में पुलिसिया फटकार
पुलिस ने थाने ले जाकर पुलिसिया अंदाज में पूछताछ शुरू की। पुलिस की डांट-फटकार पर युवती घबराकर रोने लगी। उसने बताया कि वह एक कंपनी में सर्विस करती है और इस लड़के से उसका ब्याह होने वाला है। दोनों मंगेतर हैं और आज यूं ही मुलाकात करने निकले थे। तब भी पुलिस ने युवती से फोन कराकर उसकी बहन को बुला लिया। युवक के भी घरवाले आए और कहा कि उन दोनों की शादी होने वाली है। इसके बाद पुलिस ने दोनों को यह चेतावनी देकर छोड़ा कि अब कभी ऐसे मिलना-जुलना नहीं। इस दौरान थाने में कई प्रेस फोटोग्राफर भी अपनी जिम्मेदारी भूलकर तमाशा का मजा लेते रहे। प्रेमी जोड़ों को बेइज्जत करने की यह कोई पहली घटना नहीं थी। दो रोज पहले भी पुलिस ने ऐसी ही हरकत की थी।