शनिवार, 12 मार्च 2011

निःस्वार्थ प्रेम का अनुपम उदाहरण मटुकनाथ और जूली



सहारा चैनल इंदौर, के श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी की फेसबुक पर लिखी यह पंक्तियाँ साभार ली गई हैं -



मटुकनाथ और जूली का फेविकोल !

सब के जोड़ उखड़ गये,

इन दोनों के बचे हैं,

रहस्य क्या है ?

लिज हर्ले का अरुण नायर से

करिश्मा कपूर का संजय कपूर से

रणबीर कपूर का दीपिका पादुकोण से

प्रियंका चोपड़ा का हरमन बावेजा से

सोनाक्षी सिन्हा का आदित्य श्रॉफ से

सलमान का संगीता बिजलानी, ऐश्वर्या राय,

कैटरीना, सोमी अली, जरीन आदि से

सुष्मिता सेन का विक्रम भट्ट, संजय नारंग,

सबीर भाटिया, रणदीप हुड्डा, मानव मेनन,

बंटी सचदेव, वसीम अख्तर वगैरह से

अक्षय कुमार का रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी इत्यादि से

प्रीति जिंटा का नेस वाडिया से

कंगणा राणावत का अध्ययन सुमन से

सबके जोड़ खुल गये

. पर वाह क्या जोड़ है, मटुकनाथ और जूली का !!



प्रकाशजी फेसबुक पर हमारे मित्र हैं। लेकिन इसके पहले मार्च, 2007 में इंदौर-यात्रा के क्रम में ही हमारी मित्रता हो चुकी थी। उनके इस वक्तव्य पर फेसबुक में अनेक टिप्पणियाँ आयीं। सबने अपने-अपने मनोविकार प्रकट किये, विचार कहीं से नहीं आया। मैं सोचने लगा आखिर इसका रहस्य क्या है ? मटुक-जूली के प्रेम के टिकाऊपन का कारण ढूँढ़ने की कोशिश लोगों ने क्यों नहीं की ? अनुमान क्यों नहीं भिड़ाया ? क्या उनलोगों में विचार करने की क्षमता नहीं है ? उल्टा सीधा अनुमान भी नहीं लगा सके ! क्यों हमदोनों का नाम आते ही वे अपनी-अपनी मनोग्रंथियों में सिकुड़ गये ? यह बात तो सच है कि स्कूल-कॉलेजों में मौलिक ढंग से विचार करना नहीं सिखाया जाता। इसलिए वे विचार अगर नहीं कर पाये तो कोई आश्चर्य नहीं। विचार न सही, अगर वे प्रेम कर रहे होते तो दूसरों के प्रेम को समझने की क्षमता उनमें अपने आप आ गयी होती। बेचारे प्रेम करें भी तो कैसे, क्योंकि मुट्ठी भर प्रबुद्ध समाज को छोड़कर शेष विराट समाज तो प्रेम का अंध-शत्रु बना हुआ है ! विश्वविद्यालय इस संबंध में कपटाचार और मिथ्याचार की गिरफ्त में है। जब कहीं से भी प्रेम की रोशनी न आती हो तो स्वाभाविक है फेसबुक पर टिप्पणी के नाम पर अल्ल-बल्ल ही आयेगा।

प्रकाशजी के साथ-साथ आम आदमी की भी चाहत होती है कि प्रेम टिके। उसका आनंद इतना बड़ा है कि कौन उसे गँवाना चाहेगा ! लेकिन प्रेम का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि पकड़ने में ही वह खो जाता है। प्रेम को जितने जोर से हम मुट्ठी में बाँधना चाहते हैं, उतनी ही तेजी से वह मर जाता है। जैसे फूल को कोई मुट्ठी में पूरी ताकत से बंद कर ले तो जो दुर्दशा फूल की होगी वही दशा हमारे प्रेम की हो जाती है।



प्रेम एक फूल है। फूल को हम खिलाते नहीं, वह खिलता है। वह अपनी आंतरिक ऊर्जा और बाह्य प्रकृति के संयोग से खिलता है। हमारा प्रेम भी अपनी आंतरिक ऊर्जा की खिलावट है। दूसरा केवल सहारा बनता है। जो फूल आज खिला है, वह कल मुरझायेगा, परसों झड़ जायेगा। जीवंत प्रेम फूल की तरह एक दिन खिलता है और दूसरे दिन मुरझा जाता है। हाँ, प्लास्टिक का फूल सदा एक समान रहता है। विवाह एक प्लास्टिक का फूल है। उसमें टिकाऊपन तो है, लेकिन प्राणों की धड़कन नहीं, प्राणों को आप्लावित करने वाली भीनी खुशबू नहीं। प्रेम से हम शाश्वतता की माँग नहीं कर सकते।

प्रेम एक ही स्थिति में शाश्वत हो सकता है, जब वह हमारा स्वभाव बन जाय। जब वह दूसरों की पराश्रयता से मुक्त हो जाय। दूसरों की अधीनता से मुक्त होने का मतलब है कि अब हम इस स्थिति में नहीं हैं कि दूसरा प्रेम करेगा तो हम करेंगे, नहीं करेगा तो नहीं करेंगे। जब प्रेम हमारी प्रकृति बन जाय, तो जो भी हमारे संपर्क में आयेगा उसे हम प्रेम से नहला देंगे। इस अवस्था में स्त्री-पुरुष का भेद भी मिटने लगता है। अब तो स्त्री हो या पुरुष सभी हमारे प्रेम के पात्र होंगे। मनुष्य की तो बात ही क्या पशु-पक्षी भी हमारे प्रेम के अधिकारी होंगे। वनस्पितयों पर हमारा प्रेम बरसेगा। जिस समय कोई सामने न रहेगा, उस समय भी हम उदास नहीं होंगे, अंदर ही अंदर अपने आप में ही मुदित होंगे। जैसा गीता में कहा गया है- ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः।’ अपने आप में ही संतुष्ट, तृप्त और आनंदित। इसी तरह का प्रेम शाश्वत होता है, लेकिन जो प्रेम लेन-देन पर आधारित होता है, आधार के खिसकने से वह भी खिसक जाता है।

जिस भूमि पर हम सभी प्रेम करते हैं उसमंे एक प्रेमी की चाहत होती है कि प्रेमिका उसकी चाहत से भरी रहे, हमेशा उसकी याद करती रहे, उसी में डूबी रहे, दूसरे की तरफ उनका ध्यान न जाय। प्रेमी के प्रति उसकी ऊष्मा कभी ठंडी न पड़े। प्रेमिका भी प्रेमी से यही चाहती है। एक ही चीज की माँग दोनों करते हैं एक-दूसरे से और देना बंद कर देते हैं। यहीं संघर्ष का बीज पड़ जाता है। अब दोनों प्रेम करने के बजाय लड़ने लगते हैं। अधिकांश लोगों का प्रेम इसी जमीन पर जनमता है और धीरे-धीरे कलह से भर कर क्रोध, हिंसा और बिलगाव में बदल जाता है।

पूर्णतः आवेश युक्त प्रेम प्रायः क्षणिक होता है, क्योंकि दिल हमेशा एक समान रूप से नहीं धड़कता। तथापि प्रेम को टिकाऊ बनाया जा सकता है। इसे टिकाऊ बनाने के लिए बौद्धिक समझदारी आवश्यक है। कुछ थोड़े से समझदार प्रेमी होते हैं जो सोचते हैं कि जिन चीजों की माँग मैं प्रेमिका से करता हूँ क्यों नहीं उसे देना शुरू करूँ। प्रेम हमेशा प्रतिध्वनित होता है। अगर किसी कारण से प्रत्युत्तर न आवे तो वह धैर्य नहीं खोता और अपनी प्रेमिका को लांछित नहीं करता। ऐसा ही प्रेमी धीरे-धीरे अपने भीतर छिपी प्रेम-संपदा से परिचित होने लगता है और ज्यों-ज्यों परिचित होता जाता है, त्यों-त्यों उसका प्रेम पराधीनता से मुक्त होता जाता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ प्रेमी ही अपनी प्रेमिका को हृदय से स्वतंत्रता दे सकता है। ऐसा खिला हुआ मुक्त हृदय ही असली फेविकोल है जो माँग से ज्यादा दान को महत्व देता है, जो अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों की स्वतंत्रता का उतना ही ख्याल रखता है। मटुक-जूली के प्रेम में कुछ ऐसा ही फेविकोल है जिसकी मजबूती शानदार है। क्रमशः



14.01.11

2 टिप्पणियाँ:

ललित शर्मा ने कहा…


इश्क है दरिया प्यार का ,वा की उलटी धार।
जो उबरा सो डूब गया,औरजो डूबा सो पार॥

सुशील बाकलीवाल ने कहा…

निःसंदेह तमाम आलोचनाओं से परे ये प्रेम अब तक स्थाई रुप से आदर्श बना दिखता है ।







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