सोमवार, 28 मार्च 2011

भुलाए नहीं भूलती बचपन की वह होली

बात उन दिनों की है जब मैं प्राइमरी में पढ़ता था। तीन-चार दशक पहले गांवों में होली का बड़ा महत्व होता था। फागुन आते ही रात में चौपालों में होली गीत शुरू हो जाते थे। साले और बहनोई अगर आ जाते तो रंग से सराबोर होकर ही वापस जाने पाते थे। उनसे होली खेलने पूरा गांव (जिनका रिश्ता बनता था) जुट जाता था। मतलब माहौल ही देखकर बाहरी व्यक्ति जान सकता था कि फागुन उफान पर है। बड़े बुजुर्ग जहां फाग गाकर मस्ती लेते थे वहीं बच्चे पिचकारियां थाम लेते थे। भाभियों की शामत आ जाती थी। दिन भर में उन्हें कई-कई बार भीगना पड़ता था। रंग तो खैर होली के ही दिन पड़ता था लेकिन पानी की बौछार कई बार मिल जाती थी। सो मेरी भी रिश्ते की एक भाभी पहली बार आई थीं। फागुन का महीना उस पर नई नवेली। सो पहली बार भाभी से रंग खेलने के सपने देखने लगा। इसी बीच पता चलाकि पहली बार ससुराल आने के कारण होली से पहले वह मायके वापस चली जाएंगी। यह सुनते ही उत्साह ठंडा होने लगा। मगर अचानक खयाल आया कि होली से पहले ही क्यों न उन्हें रंग दूं। बस यह सोचते ही मन मयूर खुशी से नाच उठा। अब मैं स्कूल जाने से पहले और आने के बाद भाभी पर रंग डालने की जुगत तलाशने लगा। मगर हर जुगत फेल हो जाती। कभी वह रसोई में होतीं तो कभी गांव की लड़कियाें से घिरी होने के कारण निराश होना पड़ता। कभी तो वह देखते ही कमरे में भागकर दरवाजा बंद कर लेतीं। लुकाछिपी का यह खेल लगभग एक सप्ताह से चल रहा था। एक दिन शाम को मैं स्कूल से आया। बस्ता (बैग) घर में रखा और प्लास्टिक वाली छोटी पिचकारी में रंग भरा और छिपाकर उनके घर में दाखिल हो गया। मौका भी मिल गया। उनके पतिदेव को छोड़ बाकी परिवार के सदस्य घर के बाहर बैठे थे। उनके पतिदेव से मैंने कहा, भइया अगर आज आप मदद करें तो भाभी से होली खेल लूं। उन्होंने कहा, ठीक है। यह कहकर वह कमरे में अपनी पत्नी के पास गए और फिर बाहर की ओर चल पड़े। मगर जाते समय उन्होंने घर का प्रवेश द्वार बाहर से बंद कर लिया। उनकी इस साजिश से मैं अवाक रह गया। फिर वही हुआ जिसका डर था। मेरी सारी बहादुरी काफूर हो चुकी थी। भागने का कोई मौका था नहीं। जो भाभी मुझको देखकर रोज कमरे में घुस जाती थीं वह आज खुद हमलावर थीं। बताने की जरूरत नहीं कि उम्र में काफी बड़ी होने के कारण उन्होंने मेरी जो दुर्दशा की कि मैं रंग डालना भूल सिर्फ उनसे बचने की आरजू ही करता रहा। मगर उन्होंने कहा, सप्ताह भर सो तुम परेशान हो। आज सातों दिन की कसर पूरी कर दूंगी। किया भी उन्होंने वही। कोई अंग नहीं बचा था जहां उन्होंने रंग, कीचड़ और कालिख न पोता हो। काफी मिन्नत केबाद उन्होंने मुझे छोड़ा, और मुस्कराते हुए बोलीं, अब अगले साल फिर आना। अपने शरीर की दुर्दशा देख मुझे भाई साहब पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बाहर निकलकर मैंने उनसे कहाभी, आपने साजिश की। पत्नी का साथ दिया, भाई का नहीं। मेरे शरीर की हालत देख वह भी मुस्कराने लगे और बोले, तुम्हीं ने तो कहा था कि मैं बाहर चला जाऊं।
सचमुच वह होली मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। भाभीजी भी फागुन में जब मिलती हैं तो मुस्कराते हुए कहती हैं, देवर अबकी होली नहीं खेलोगे क्या। मेरा जवाब होता है नहीं भाभी, पहली होली ही नहीं भूल पा रहा हूं। अब क्या खेलूंगा।
-कृष्णानन्द त्रिपाठी

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