गुरुवार, 31 मार्च 2011

याद आओगे जमाने को मिसालों के लिए....


लगभग ढाई साल पहले सितम्बर २००८ में इलाहबाद के चिकित्सा जगत में एक ऐसे सितारे का उदय हुआ जो अपने कार्यों और सेवा भावना से इलाहाबाद ही नहीं बल्कि आस-पास के भी जिलों में इस तरह से छ गया जैसे आसमान में तारों के बीच चंद्रमा. दिनोदिन बढती उसकी ख्याति से शहर के तमाम बड़े और नामी गिरामी चिकित्सक ईर्ष्या करने लगे. उन्हें अपना लूटखसोट का धंधा बंद होता नज़र आने लगा. डॉ अमित शुक्ल नामक इस युवा चिकित्सक का बस यही सपना था कि कोई गरीब या बेसहारा इलाज के अभाव में न मरने पाए। जहाँ भी पता चलता कि कोई व्यक्ति गरीबी के कारण या फिर इलाज के अभाव में तड़प रहा है, वह मदद के लिए पहुँच जाता। वह चाहे इलाहाबाद शहर हो या गाँव या फिर आस-पास का जिला . मगर ३० मार्च २०११ की रात एक ऐसी खबर मिली कि सहसा कानों पर यकीन करना मुश्किल हो गया। विश्वास ही नहीं हुआ कि गरीबों के रहनुमा के रूप में चर्चित चौंतीस वर्षीय डा. अमित शुक्ला अब हमारे बीच नहीं रहे। मैं ही नहीं जिसने भी यह दर्दनाक खबर सुनी वही अवाक रह गया। सभी के मुख से बस यही निकला, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे इंसान और होनहार चिकित्सक को भगवान हमसे नहीं छीन सकते। मगर सत्य तो सत्य ही होता है। एक न एक दिन उसे स्वीकारना ही होता है। ...और इसके साथ ही बस लोग संस्मरण सुनाने लगे। जाहिर है वह जितने अच्छे न्यूरोलाजिस्ट थे उससे भी ज्यादा अच्छे इंसान और समाज सेवी। जो भी एक बार उनसे मिला उनका मुरीद हो गया। किसी की मदद करने में उनको वही सुख मिलता था जो किसी धनलोलुप चिकित्सक को मरीजों की भीड़ या फिर किसान को लहलहाती खेती देखकर मिला करती थी। चिकित्सा क्षेत्र में भी उन्होंने पाने की लालसा कभी नहीं की। ‘जो मिले उसे बांटते रहो, मदद करते रहो’ यह उनका आदर्श वाक्य था।उनका अक्सर यही सवाल होता कि लोग सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात या पैसा नहीं खाते फिर भी पैसे केलिए ही परेशान रहते हैं। खाने केलिए तो सिर्फ दाल, चावल, रोटी और सब्जी ही चाहिए। उनकी खूबियों की इतनी कहानियां हैं कि शायद ही उनका कभी अंत हो। जब भी कभी अच्छे इंसान, योग्य और संवेदनशील चिकित्सक, समाजसेवी की चर्चा होगी तो डा. अमित शुक्ला का नाम सबसे पहले आएगा। उनके लिए बस यही कहा जा सकता है कि, याद आओगे तुम जमाने को मिसालों के लिए। इलाहाबाद में अपने ढाई साल के कार्यकाल में उन्होंने इतने लोगों को अपना बना लिया था कि सभी के कायल हो गए थे। इस काम अवधि में ही उन्होंने सैकड़ो गरीब बच्चों को गोद ले रखा था. उनके असामयिक निधन से वे सभी बच्चे अनाथ हो गए. सच , अब भला कौन उन्हें दवाएं, खिलौने और भोजन पहुंचाएगा. मैं तो बस यही कह सकता हूं-‘इन्सान के रूप में बनकर आ गया था फ़रिश्ता ओ, उसकी खूबियों की चर्चा तो गैर की महफिल में है’।


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